मनुष्य दान एवं पुण्य क्यों करते हैं। दान एवं पुण्य मे क्या अंतर है।

मनुष्य दान और पुण्य क्यों करते हैं। दान एवं पुण्य मे क्या अंतर है।

आदरणीय एवं सम्मानित मित्रों प्रणाम, नमस्कार।

Posted by: Lalsuprasad S. Rajbhar.

04/03/2019.


मित्रों दान दाता एक ऐसा शब्द है जो हम लोग अच्छी तरह से नहीं जानते हैं।दान मनुष्य अच्छे कार्य के लिए कर सकता है। परंतु दाता तो केवल ईश्वर है। हमें जो कुछ भी मिलता है ।वह ईश्वर की देन है। ईश्वर ही सर्वश्रेष्ठ है। दान जो गुप्त रूप में किया जाता है वह एक तरह से पुण्य प्राप्त होता है। यदि हम सामाजिक कार्य के सहयोग देते हैं तो वह दानदाता नहीं होता है। वह मनुष्य समाज के कार्य में सहयोगी होता है। सहयोग के लिए दिया हुआ रुपया या पैसा दान दाता की श्रेणी में कदापि नहीं आता है। कुछ लोग अज्ञानवश दानदाता दानदाता कह रहे थे। मेरे कयी मित्रों ने इस पर कहा कि शायद इन लोगों को शब्द सही ढंग से उच्चारण नहीं कर पा रहे हैं। आप कुछ बता दिजिए। मैंने कहा कि अब वह शब्द (दानदाता) कयी बार निकल चुका है। उसे रोकना अभी उचित नहीं है। दाता तो केवल ईश्वर होता है। जो हमें सबकुछ देता है। इसलिए हम दाता नहीं बन सकते हैं। सहयोग कर्ता मनुष्य हो सकता है। परंतु दानदाता  इस संसार में बहुत कम लोग हैं। एक प्रकार से दानदाता ईश्वर ही है। इसलिए मनुष्य के लिए यह शब्द उचित नहीं है। दानदाता की जगह पर आप सहयोग कर्ता या आर्थिक सहायक, या अनुदान कर्ता लिखेंगे तो बहुत उचित होगा।आइए हम सब जानेंगे कि दान एवं पुण्य मे क्या अंतर है। भारत में दान का बहुत महत्त्व है। दानशब्द के साथ-साथ पुण्य शब्द भी यहाँबहुत प्रचलित है। इन दोनों के इकट्ठे प्रयोगसे यह प्रश्न उठता है कि ये दोनों एक हैं याअलग-अलग हैं। जब कोई दान करता हैतो उसे दानात्मा नहीं लेकिन पुण्यात्माकहा जाता है। इसका अर्थ यह हुआ किदान से भी पुण्य का महत्त्व अधिक है।क्योंकि दान करके भी हम पुण्यात्मा हीबनना चाहते हैं। भगवान के लिए भीकहते हैं कि वो हमारे पुण्य का खाता चेककरता है, दान का खाता नहीं। संसार सेविदा होते समय भी पुण्य की पूंजी हमारेसाथ जाती है, दान की पूंजी नहीं। किसीको कोई अच्छी प्राप्ति हो जाने पर भी यहीकहा जाता है कि पूर्वजों के पुण्य-प्रताप सेया श्रेष्ठ कर्मों के पुण्य-प्रताप से प्राप्ति हुईहै, दान-प्रताप से प्राप्ति हुई है, ऐसे नहींकहा जाता। उपरोक्त उदाहरणों से स्पष्टहोता है कि दोनों में सूक्ष्म भेद है।

 

भगवान कहते हैं - ``एक है दान करना,दूसरा है पुण्य करना। दान से भी पुण्य काज्यादा महत्त्व है। पुण्य कर्म निस्वार्थसेवाभाव का कर्म है। पुण्य कर्म दिखावानहीं होता है लेकिन दिल से होता है। दानदिखावा भी होता है, दिल से भी होता है।पुण्य कर्म अर्थात् आवश्यकता के समयकिसी आत्मा के सहयोगी बनना अर्थात्काम में आना। पुण्य कर्म करने वालीआत्मा को अनेक आत्माओं के दिल कीदुआएं प्राप्त होती हैं। सिर्फ मुख सेशुक्रिया या थैंक्स नहीं कहते लेकिन दिलकी दुआएं, गुप्त प्राप्ति जमा होती जातीहै। पुण्य आत्मा, परमात्म दुआएं तथाआत्माओं की दुआएंöइस प्राप्त हुएप्रत्यक्षफल से भरपूर होती है। पुण्यआत्मा की वृत्ति, दृष्टि औरों को भी दुआएंअनुभव कराती है। पुण्य आत्मा के चेहरेपर सदा प्रसन्नता, सन्तुष्टता की झलकदिखाई देती है। पुण्य आत्मा सदा प्राप्तहुए फल के कारण अभिमान और अपमानसे परे रहती है क्योंकि वह भरपूर बादशाहहै। पुण्य आत्मा, पुण्य की शक्ति द्वारा स्वयंके हर संकल्प, हर समय की हलचल को,हर कर्म को सफल करने वाली होती है।''

 

उदाहरण - हम भोजन खाते हैं। भोजनतो कई प्रकार का होता है। उस भोजन सेरस बनता है जो कालान्तर में मज्जा, मेद,रक्त आदि में परिवर्तित हो जाता है। अबदान की तुलना यदि भोजन से की जाए तोउससे बनने वाले रस की तुलना पुण्य सेकी जा सकती है। यदि भोजन उचित,शुद्ध, संतुलित नहीं है तो उससे रस नहींबन पाता। इसी प्रकार, दान की विधि ठीकनहीं है तो वह मात्र दान रह जाता है, पुण्यनहीं बन  पाता अर्थात् उससे पुण्य कीप्राप्ति नहीं होती। इसलिए दान के सम्बन्धमें भी नियम हैं कि वह कैसे किया जाए।

 

पहला नियम है कि दान गुप्त हो। एकहाथ से दें तो दूसरे हाथ को पता नहींलगना चाहिए। गुप्त दान ही महाकल्याणहै। पहले ज़माने में कहते थे, नेकी करदरिया में डाल अर्थात् नेक कर्म करकेदरिया में बहा दो, उसे किसी को दिखनेमत दो। आजकल लोग देवियों की मूर्ति,गणेश की मूर्ति आदि बनाकर उसकाविसर्जन तो नदी में कर देते हैं पर अपनेकिए गए दान को तो पत्थरों पर, पंखों पर,दीवारों पर खूब लिखते हैं। पुस्तकों में,सभाओं में उसका खूब वर्णन करवाते हैं।मन्दिर, धर्मशाला आदि सार्वजनिक महत्त्वके स्थानों पर जाकर व्यक्ति ईश्वर चिन्तनकरना चाहता है परन्तु वहाँ तो हर पत्थरपर, हर दरवाज़े पर, हर वस्तु  परदानदाता का नाम लिखा रहता है जिसकारण वह मन में ईश्वर की माला फेरने केबजाय, चाहे, अनचाहे दानदाता की मालाफेरने पर मजबूर हो जाता है। होना तो यहचाहिए था कि हमारी दी हुई चीज़ से सुखपाकर लोग प्रभु को याद करते, उसेधन्यवाद करते, उसका गुणगान करते,उसके प्यार में खो जाते, पर हमने तोउलटा ही कर दिया। भगवान, जो दाता हे,हमें सबकुछ देने वाला है, करनकरावनहारहै, उसकी महिमा को पीछे धकेलकर,अपने को ही स्वयंभू मान लिया, अपने कोही प्रत्यक्ष कर लिया और लोगों को ईश्वरके स्थान पर स्वयं का कृतज्ञ बना लिया।ईश्वर के स्थान पर स्वयं की मालाफिरवाना शुरू कर दिया। कई लोग कहतेहैं कि इस प्रकार  नाम करने से दूसरे लोगोंको भी दान करने की प्रेरणा मिलती है।लेकिन सिद्धान्त यह कहता है कि जैसाकर्म होगा उससे प्रेरणा भी वैसी हीमिलेगी। ऐसे दान से दिखावा करने कीऔर नाम कमाने की प्रेरणा भले मिले परपुण्य अर्जन की प्रेरणा कदापि नहीं मिलसकती। यही कारण है कि आज भी संसारमें नाम वाले दानियों की भीड़ काफी हैपरन्तु प्रसन्नता, सन्तुष्टता, दुआ, शक्ति,मानसिक स्थिरता और कर्मों की सफलतासे भरपूर दानी आत्माएँ नज़र नहीं आतीं।

 

दान का दूसरा पहलू है तुरन्त दान,महापुण्य। सोच-सोच कर दान किया,अभी जेब में हाथ डाला और फिर कुछसोचकर खाली का खाली बाहर निकाललिया। दूँ, ना दूँ, इसी उधेड़बुन में समयगँवाते रहे, देने से क्या लाभ होगा, न दूँ तोक्या नुकसान होगा, इसी आकलन में लगेरहे तो उस दान का पुण्य नहीं बनता। मनमें संकल्प उठा और तुरन्त कर दिखाया,तब कहते हैं महापुण्य। जैसे कर्ण के लिएदिखाते हैं कि बाएं हाथ से याचक को दानदिया क्योंकि दाएं से खाना खा रहे थे। दाएंहाथ को धोएं इतनी देर में मन का संकल्पफिर गया तो दान-कार्य में विघ्न पड़जाएगा, यह सोचकर तुरन्त बाएं हाथ सेदान कर दिया। बलि में भी एक झटके सेमरने वाले को सही बलि माना जाता है।मरने में देर लगाए तो वह बलि नहीं। इसीप्रकार दान  के संकल्प को तुरन्त कर्म मेंलाए तो ही महापुण्य बनता है। सोचा कबऔर किया कब - इस समय के अन्तरालसे पुण्य प्राप्ति में अन्तर आ जाता है।

 

दान का तीसरा पहलू है सुपात्र को दियागया दान ही महापुण्य है। पात्र का एकअर्थ होता है बर्तन। मानलो हमें खीरडालनी है परन्तु पात्र गोबर से लिपटा पड़ाहै तो ऐसे गन्दे पात्र में डाली गई खीर भीगन्दी हो जाएगी। पात्र का दूसरा अर्थ होताहै लेने वाले व्यक्ति का मन। यदि वह मनकाम, क्रोध, व्यसन, हिंसा, मोह आदिविकारों से भरपूर है तो हमारे द्वारा दिएगए दान को भी इन्हीं कार्यों में लगाएगा।फलस्वरूप हम पुण्य के नहीं, पाप केभागी बन जाएंगे। इस सम्बन्ध में एककहानी प्रचलित है कि एक बहुत ही दानीराजा, देह त्यागने के बाद जब धर्मराज केसामने पहुँचा तो चित्रगुप्त ने बताया किइस पापी राजा के खाते में लाखों मछलियाँमारने का पाप है। राजा ने इसका कड़ाविरोध किया और अपने धर्मात्मा होने केकई प्रमाण दिए परन्तु चित्रगुप्त अपनेसत्य वचन पर अड़ा रहा। अन्त में पताचला कि राजा के दान के धन से एकमछुआरे ने मछली पकड़ने का जालखरीदा और लाखों मछलियों को मारा।चूंकि इस पाप कर्म में धन राजा काइस्तेमाल हो रहा था, इसलिए वह भी पापमें भागीदार बन गया। अत दान देते समयपात्र के चरित्र को ज़रूर जानना चाहिए।यदि वह लोभ, अहंकार आदि विकारों केवश है तो दान का फल पुण्य नहीं, पापहो  जाएगा।

इस सम्बन्ध में एक जानने योग्य बात यहभी है कि कोई भला आदमी बहुत साराधन कमाकर अपने बच्चों को वर्से में देकरस्वयं परलोक चला जाता है परन्तु बच्चाकुसंस्कारी है और उस धन से शराब, जुआतथा समाज विरोधी और व्यभिचारी  कर्मकरता है तो उस पाप का फल, उसदिवंगत आत्मा को भी भोगना पड़ता है।ना वो धन कमाता, ना आज उसका बच्चाव्यभिचार करता। इसलिए ना केवल दानमें वरन वर्से में धन देते समय भी पात्र,कुपात्र का उचित विचार करना अनिवार्यहै।

दान का चौथा पहलू है आवश्यकता केसमय दिया गया दान ही महापुण्य है।जिस दान को पाकर व्यक्ति की ज़रूरतपूरी हो, उसे आत्मिक तृप्ति मिले जैसे भूखेको भोजन, प्यासे को पानी, बीमार कोदवाई, अशान्त को शान्ति और असन्तुष्टको सन्तोष-धन। दान का पाँचवाँ पहलू हैअच्छी वस्तु का दान ही महापुण्य है। जोवस्तु हमें काम नहीं आ रही। हमारे लिएबेकार हो गयी या उस वस्तु में कोई कमीआ गई इसलिए दान कर रहे हैं तो समझलीजिए कि, लेने वाला हम पर उपकार कररहा है उस कमी वाली वस्तु को स्वीकारकरके, न कि हम उस पर उपकार कर रहेहैं। देना, लेना होता है और लेना, देना। जोदेंगे वह कई गुणा होकर मिलेगा अर्थात्ब्याज सहित मिलेगा। कोई न चाहे तो भीमिलेगा। क्योंकि कर्म किया है तो उसकाफल प्राप्त होगा ही। जैसे ज़मीन को एकबीज देते हैं, कई गुणा फल पाते हैं। इसीप्रकार यदि किसी को कमी वाली चीज़दान की तो बदले में बहुत सारी कमी वालीचीज़ें आज नहीं तो कल अवश्य प्राप्तहोंगी। नचिकेता ने अपने राजा पिता काइसी बात पर विरोध किया था कि आपबूढ़ी और दूध रहित गउओं का दान क्योंकर रहे हैं, दान में तो अच्छी चीज़ देनीचाहिए। इस सत्य पर पहले तो राजाक्रोधित हुए परन्तु बाद में उन्हें अपनीगलती का अहसास हुआ कि सत्य ही दानहमेशा उत्तम वस्तु का ही करना चाहिए।

 

पुण्यात्मा की निशानी - अपने पुण्य केखाते को परखने के लिए हमारे पास जोकसौटी है वह है व्यर्थ संकल्पों की समाप्तिकी कसौटी। पुण्य का खाता जितनाभरपूर, व्यर्थ का खाता उतना ही कमजोर।ऐसी आत्मा हर परिस्थिति में हर्षित औरमन की चंचलता, विक्षेपता, अस्थिरता सेमुक्त होगी। आने वाली परिस्थिति कोपहले से जानकर स्वस्थिति के मजबूतकवच को पहने रहेगी। अपनी इन्द्रियों परपूरा नियत्रण रखेगी, बेफिकर बादशाहहोगी, दूसरों को अपने हर कर्म सेखुशनसीबी की दुआ अनुभव कराएगी।चेहरे पर रूहानियत होगी, साधना का बलहोगा, मन की स्लेट दाग रहित होगी। स्वपर पूरा नियत्रण रखने वाली मनजीत,प्रकृतिजीत होगी।

पुण्यात्मा बनने में रुकावट - पुण्यात्माव्यर्थ विचारों से मुक्त होती है इसलिए व्यर्थवचन और व्यर्थ कर्म भी उसके जीवन मेंनहीं होते। व्यर्थ विचार प्रवेश करने कासबसे बड़ा दरवाज़ा है दूसरों के कर्मों कोकारण बनाना। इसने यह कहा, उसने यहकिया इसलिए मेरा मन ऐसा हो गया।सामाजिक प्राणी होने के नाते मानव कोदूसरों के बीच तो रहना ही पड़ेगा। दूसरेलोग कर्म भी करेंगे। यदि उनके कर्मों कीगरमाहट से हमारे मन में गर्मी प्रवेश करतीरही तो जीवन कभी शीतल हो ही नहींसकेगा। इसलिए जैसे सूर्य की गर्मी कोछाते से रोकने की कोशिश करते हैं, इसीप्रकार, दूसरे के कर्मों की गर्मी से बचने काछाता है उनकी कमियों की तरफ ध्यान नदेना, उनकी तरफ से मुँह फेर लेना, उन्हेंस्वीकार न करना, उनका चिन्तन मन में नआने देना। अपने मन को दूसरेसकारात्मक कार्यों में लगाकर उस तरफसे उपराम हो जाना। इसी को कहा जाताहै दुख न लेना। `दुख देना नहीं है' इस मत्रको पक्का करने से आधे पुण्यात्मा बनेंगेपर `दुख लेना भी नहीं है' इस मत्र से पूरेपुण्यात्मा बन जाएंगे। दूसरे द्वारा प्रदत्तदुख को सुख के रूप में स्वीकार करो,ग्लानि को प्रशंसा समझो, तब कहेंगेपुण्यात्मा। ऊपर हमने नचिकेता का वर्णनकिया। उसकी कहानी में आगे आता है किपिता  ने क्रोधित होकर उसे यम (मृत्यु) कोदान कर दिया पर नचिकेता ने इस क्रोध सेदुखी होने के बजाए, यम से तीन वरदानप्राप्त कर पिता के क्रोध का फायदा उठालिया। गाली देने वाले और ग्लानि करनेवाले को दिल से गले लगाओ। उन पररहम करो। जैसे कोई गला हुआ फल दे तोहम लेंगे नहीं। दूसरे द्वारा दिए जा रहे दुःखको भी गला हुआ फल समझकरअस्वीकार कर दो या उसे खाद में बदलकरउस पर दिव्यगुणों के फूल खिला दो। कईकहते हैं, करना तो नहीं चाहते पर होजाता है। जब हम नहीं चाहते तो कोई औरआकर कर जाता है क्या?जैसे हम पीना नचाहें तो कोई हमें पानी पिला सकता हैक्या? नहीं ना, तो जो हम सोचना ना चाहें,जो बोलना, करना ना चाहें, वह कोई औरआकर करा सकता है क्या? अवश्य हीहमारे  में कोई कमज़ोर कोना है, कमज़ोररास्ता है। ना चाहते भी प्रकट होने वालीइस कमज़ोरी को खत्म करना हीपुण्यात्मा बनना है।

  ऊँ नमः शिवाय।

जय सुहेलदेव राजभर जी।

संकलन: ललसूप्रसाद यस. राजभर।

04/03/2019.🌷🌷🌹🌹🙏🙏

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