महिषासुर एक राक्षस था। जिसे मां भगवती ने संहार किया था।

महिषासुर एक राक्षस था। जिसे मां भगवती ने वध किया था।

आदरणीय एवं सम्मानित मित्रों प्रणाम , नमस्कार।

01/04/2019.






महिषासुर असुर  का जन्म

मित्रों जब जब हिन्दू राजभर का कोई फेस्टिवल आता है तब तब कुछ राजभर समाज में कुंठित मानसिकता वाले ( बुद्धिस्ट, नास्तिक )  जैसे लोग महिषासुर राक्षस को भी अपना बताने लगते हैं। इस पृथ्वी सर्वप्रथम देवता एवं उसके बाद दानवों का जन्म हुआ। मनुष्य सबसे बाद मे आये। परन्तु कुछ विचलित मानसिकता, एवं अज्ञानी जैसे लोग महिषासुर राक्षस को भी अपना बनाने पर तुले हुए हैं। क्योंकि ऐसे लोगों को राक्षसों का सहारा लेकर बुद्धिस्ट धर्म को आगे बढ़ाना है। जबकि महिषासुर जैसे राक्षसों के वध के मां चण्डिका को इस धरती पर आना पड़ा था। जिसनें अत्याचारी महिषासुर का अंत किया। मित्रों हमारे समाज में एकता लाने के लिए हमारा धर्म भी बहुत महत्वपूर्ण है। धर्म मे खलल पैदा करने वाले लोगों को सामाजिक  लगाम लगाना जरूरी है। नहीं तो ऐसे लोग अपनी कुंठित मानसिकता पर रोक नहीं लगायेंगे। एवं अपने फायदे के लिए इतिहास को भी तोड़ मरोड़ कर पेश कर रहे हैं। हमारे राजभर समाज की कुलदेवी मां दुर्गा  को भी बुद्धिस्ट लोग अनाप शनाप बकते रहते हैं। मां भगवती की कृपा से पूरा विश्व सुखी है। एवं मां दुर्गा की कृपा हमारे राजभर समाज पर बनी हुई है।महिषासुर एक असुर था।महिषासुर के पिता रंभ, असुरों का राजा था जो एक बार जल में रहने वाले एक भैंस से प्रेम कर बैठा और इन्हीं के योग से महिषासुर का आगमन हुआ। इस कारण वश महिषासुर इच्छानुसार जब चाहे भैंस और जब चाहे मनुष्य का रूप धारण कर सकता था। संस्कृत में महिष का अर्थ भैंस होता है।

स्वर्ग पर आक्रमण

महिषासुर सृष्टिकर्ता ब्रम्हा का महान भक्त था और ब्रम्हा जी ने उन्हें वरदान दिया था कि कोई भी देवता या दानव उसपर विजय प्राप्त नहीं कर सकता। महिषासुर बाद में स्वर्ग लोक के देवताओं को सताने लगा और पृथ्वी पर भी उत्पात मचाने लगा । उसने स्वर्ग पर एक बार अचानक आक्रमण कर दिया और इंद्र को परास्त कर स्वर्ग पर अधिकार कर लिया तथा सभी देवताओं को वहाँ से खदेड़ दिया। देवगण परेशान होकर त्रिमूर्ति ब्रम्हा, विष्णु और महेश के पास सहायता के लिए पहुँचे। सारे देवताओं ने फिर से मिलकर उसे फिर से परास्त करने के लिए युद्ध किया परंतु वे फिर हार गये।

महिषासुन मर्दिनी

देवता सर्वशक्तिमान होते हैं, लेकिन उनकी शक्ति को समय-समय पर दानवों ने चुनौती दी है। कथा के अनुसार, दैत्यराज महिषासुर ने तो देवताओं को पराजित करके स्वर्ग पर अधिकार भी कर लिया था। उसने इतना अत्याचार फैलाया कि देवी भगवती को जन्म लेना पड़ा। उनका यह रूप 'महिषासुर मर्दिनी' कहलाया।

देवताओं का तेज

देवताओं को महिषासुर के प्रकोप से पृथ्वी पर विचरण करना पड़ रहा है। भगवान विष्णु और भगवान शिव अत्यधिक क्रोध से भर गए। इसी समय ब्रह्मा, विष्णु और शिव के मुंह से क्रोध के कारण एक महान तेज प्रकट हुआ। अन्य देवताओं के शरीर से भी एक तेजोमय शक्ति मिलकर उस तेज से एकाकार हो गई। यह तेजोमय शक्ति एक पहाड़ के समान थी। उसकी ज्वालायें दसों-दिशाओं में व्याप्त होने लगीं। यह तेजपुंज सभी देवताओं के शरीर से प्रकट होने के कारण एक अलग ही स्वरूप लिए हुए था।

तेज का प्रभाव

इस प्रकाश से तीनों लोक भर गये। तभी भगवान शंकर के तेज से उस देवी का मुख मंडल प्रकट हुआ। यमराज के तेज से देवी के बाल प्रकट हुये। भगवान विष्णु के तेज से देवी की भुजाएं प्रकट हुईं। चंद्रमा के तेज से देवी के दोनों स्तन उत्पन्न हुये। इन्द के तेज से कटि और उदर प्रदेश प्रकट हुआ। वरुण के तेज से देवी की जंघायें और ऊरू स्थल प्रकट हुये। पृथ्वी के तेज से नितम्बों का निर्माण हुआ। ब्रह्मा जी के तेज से देवी के दोनों चरण और सूर्य के तेज से चरणों की उंगलियां, वसुओं के तेज से हाथों की उंगलियां पैदा हुईं। कुबेर के तेज से नासिका यानि नाक का निर्माण हुआ। प्रजापति के तेज से दांत, संध्याओं के तेज से दोनों भौहें और वायु के तेज से दोनों कानों का निर्माण हुआ। इस प्रकार सभी देवताओं के तेज से एक कल्याणकारी देवी का प्रादुर्भाव हुआ।

अस्त्र शस्त्र से सुसज्जित

इन देवी की उत्पत्ति महिषासुर के अंत के लिए हुई थी, इसलिए इन्हें 'महिषासुर मर्दिनी' कहा गया। समस्त देवताओं के तेज पुंज से प्रकट हुई देवी को देखकर पीड़ित देवताओं की प्रसन्नता का ठिकाना नहीं रहा। भगवान शिव ने त्रिशूल देवी को दिया। भगवान विष्णु ने भी चक्र देवी को प्रदान किया। इसी प्रकार, सभी देवी-देवताओं ने अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्र देवी के हाथों में सजा दिये। इंद्र ने अपना वज्र और ऐरावत हाथी से उतारकर एक घंटा देवी को दिया। सूर्य ने अपने रोम कूपों और किरणों का तेज भरकर ढाल, तलवार और दिव्य सिंह यानि शेर को सवारी के लिए उस देवी को अर्पित कर दिया। विश्वकर्मा ने कई अभेद्य कवच और अस्त्र देकर महिषासुर मर्दिनी को सभी प्रकार के बड़े-छोटे अस्त्रों से शोभित किया।

महिषासुर से युद्ध

अब बारी थी महिषासुर से युद्ध की। थोड़ी देर बाद महिषासुर ने देखा कि एक विशालकाय रूपवान स्त्री अनेक भुजाओं वाली और अस्त्र शस्त्र से सज्जित होकर शेर पर बैठकर अट्टहास कर रही है। महिषासुर की सेना का सेनापति आगे बढ़कर देवी के साथ युद्ध करने लगा। उदग्र नामक महादैत्य भी 60 हजार राक्षसों को लेकर इस युद्ध में कूद पड़ा। महानु नामक दैत्य एक करोड़ सैनिकों के साथ, अशीलोमा दैत्य पांच करोड़ और वास्कल नामक राक्षस 60 लाख सैनिकों के साथ युद्ध में कूद पड़े। सारे देवता इस महायुद्ध को बड़े कौतूहल से देख रहे थे। दानवों के सभी अचूक अस्त्र-शस्त्र देवी के सामने बौने साबित हो रहे थे, लेकिन देवी भगवती अपने शस्त्रों से राक्षसों की सेना को बींधने बनाने लगीं। रणचंडिका देवी ने तलवार से सैकड़ों असुरों को एक ही झटके में मौत के घाट उतार दिया।

राक्षसों का वध

कुछ राक्षस देवी के घंटे की आवाज से मोहित हो गए। देवी ने तुरंत पृथ्वी पर घसीट कर मार डाला। उधर, देवी का वाहन शेर भी क्रोधित होकर दहाड़ मारने लगा। वह राक्षसों की सेना से प्रचंड होकर इस तरह घूमने लगा, जैसे जंगल में आग लग गई हो। शेर की सांस से ही सैकड़ों हजारों गण पैदा हो गये। देवी ने असुर सेना का इस प्रकार संहार कर दिया, मानो तिनके और लकड़ी के ढेर में आग लगा दी गई हो। इस युद्ध में महिषासुर का वध तो हो ही गया, साथ में अनेक अन्य दैत्य भी मारे गये। इन सभी ने तीनों लोकों में आतंक फैला रखा था। सभी देवी-देवताओं ने प्रसन्न होकर आकाश से फूलों की वर्षा की। देवी का वाहन शेर भी भयंकर आवाज करता हुआ अपने बालों को हिलाता हुआ झूम रहा था।

विजय नृत्य

महिषासुर के वध के बाद काली के रूप में जगत जननी माता ने विजय नृत्य आरम्भ किया। वो इतने वेग से हँसी कि सारा जगत उस हँसी से हिल गया।

देवता समझ गये

देवता जो ये सम्पूर्ण दृश्य देख रहे थे समझ गये कि काली को नियन्त्रण करना अब सम्भव नहीं है और वो अपने उन्माद में कहीं सम्पूर्ण सृष्टि का संहार ना कर डालें।

शिव से प्रार्थना

वे सभी शिव से प्रार्थना करने लगे। परन्तु शिव जो स्वयं नटराज कहलाते हैं इस नृत्य का आनन्द ले रहे थे। उनको इसमें कुछ भी ऐसा नहीं लगा जो चिन्ताजनक हो।

ये आनन्दमयी नहीं था

परन्तु काली का नृत्य आनन्दमयी नहीं था। ये विधवंश का सूचक था और शिव को इसका आभास तब हुआ जब उनका आसन हिलने लगा।

काली मां को पुकार

शिव समझ गये कि काली को नियन्त्रण करना आवश्यक है अपितु संसार का नाश सुनिश्चित है। उन्होने काली को उनके नाम से पुकारा।

काली मां ने नहीं सुना

काली जो कि भयङ्कर नाद के साथ हँस रही थी तथा नृत्य में उन्मत्त थी, शिव की पुकार नहीं सुन सकी। शिव ने पुनः पुकारा पर इस बार भी काली ने नहीं सुना।

शिव की त्याग परायणता

शिव समझ गये कि अब साधारण उपाय कुछ ना कर सकेंगे। उनको कुछ ऐसा करना होगा जिससे काली आत्मभूति कर सके। वो जानते थे कि कुछ भी हो जाये पर पार्वति अपना पत्नी धर्म नहींं भूलेगी।

चर्णों पर गिरना

शिव शीघ्रता से काली के चर्णों में गिर गये। राक्षसों के शवों के साथ पड़े शिव के शरीर को काली नहीं देख पायी। वह अपना नृत्य करते हुये शिव के शरीर को भी पाँव के नीचे दबाने लगी।

क्रोध का निकास

परन्तु जैसे ही काली रूप पार्वति माता का पाँव शिव के शरीर को छूआ, उनको अपनी पत्नी रूप का स्मरण आ गया। अपने पति को पाँव लगाने की अनुभूति होते ही लज्जा के कारण उनकी जिह्वा बाहर निकल आयी। ऐसा होते ही उनका सम्पूर्ण क्रोध मिट गया।

शिव सर्वदा त्याग के लिये तत्पर रहते हैं

भगवान त्यागराज कहलाते हैं क्योेंकि वो सर्वदा जगत कल्याण के लिये त्याग करते हैं। उन्होने ये नहीं सोचा कि वो पति हैं तथा ईश्वर होकर किसी के चरणों में कैसे गिर सकते हैं। जगत को बचाने के लिये वो कुछ भी करने के लिये तत्पर हैं।

धन्यवाद।

ऊँ नमः शिवाय।

ललसूप्रसाद यस. राजभर।

01/04/2019.

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